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९ अप्रैल, १९५८
मधुर मां, क्या मानव-मनके द्वारा दूसरे ब्यक्तिकी आत्माको पहचानना संभव है?
चीजों इतनी कटी-छंटी, इतनी अलग-थलग नहीं है जितनी कि कहनेमें लगती हैं, इसलिये अपने अंदर सत्ताके विभिन्न अंगोंको ठीक-ठीक और साफ-साफ देखना कठिन होता है जबतक कि कोई अध्ययन और अवलोकनके एक सुदीर्घ
२८६ प्रशिक्षण और लंबे अनुशासनमेंसे न गुजर लें । आत्मा, मन, प्राण और यहांतक कि शरीरके बीच भी कोई कठोर विमाजन नहीं है । आत्मा मनके अंदर धीरे-धीरे प्रवेश करती है । कुछ लोगोंमें यह काफी अधिक होती है, इसे देखा जा सकता है । तब मनका वह अंश जिसे एक तरहका बोध प्राप्त होता है, जो चैत्य पुरुषके साथ एक तरहका सूक्ष्म संपर्क रखता है, वह दूसरेमें आत्माकी उपस्थिति अनुभव कर सकता है ।
जिनमें एक हदतक दूसरोंकी चेतनामें घुसनेकी योग्यता है, जहां वे सीधे उनके विचारको, उनके मानसिक क्रिया-कलापको देख या अनुभव कर सकें, जो अपनी बात समझानेके लिये शब्दोंका उपयोग किये बिना ही दूसरोंके मानसिक वायुमंडलमें घुस सकते है, वे आसानीसे यह अंतर जान सकते है कि किसीकी आत्मा क्रियाशील है और किसकी सोयी पडी है । आत्माकी सक्रियता मनकी क्रियाशीलताको एक खास रंगमें रंगती है --- वह अधिक हलकी, अधिक सुबोध और अधिक आलोकित होती है --, अतः वह अनुभव की जा सकती है । उदाहरणार्थ, किसीकी आंखमें देखकर तुम कुछ निश्चयताके साथ बता सकते हो कि उसकी आत्मा जीवत है या तुम्हें उसकी आंखमें उसकी आत्मा नहीं दिखायी पड़ती । ऐसे लोग बहुत है ( ''बहुत''- से मेरा मतलब विकसित व्यक्तियोंमेसे), जो यह अनुभव कर सकते है, ऐसा कह सकते है । पर स्वभावतः, ठीक-ठीक जाननेके लिये कि किसकी आत्मा किस सीमातक जाग्रत् और सक्रिय है, किस सीमातक सत्तापर शासन करती पैर, उसकी अधिपति है, स्वयं व्यक्तिमें चैत्य चेतना होनी. चाहिये, क्योंकि वही निर्णायक ढंगसे विचार कर सकती है । लेकिन उस तरहका आंतरिक स्पंदन होना कोई बिलकुल असंभव बात नहीं है जो तुमसे कहलवाता है : ''ओहो! इस व्यक्तिमें आत्मा है ।''
अब स्पष्ट है कि लोग (यदि वे दीक्षित नही हैं तो) प्राय. जिसे ''आत्मा'' कहते है वह है प्राणिक क्रियाशीलता । जब किसीका प्राण शक्ति- शाली, क्रियाशील, कृतसंकल्प होता है जो शरीरके कार्योंको परिचालित करता है, जब उसका लोगों, वस्तुओं और घटनाओंके साथ बहुत ही प्राण- वंत या घनिष्ठ संपर्क होता है, जब उसमें कलाके लिये, सौदर्यकी सभी अभिव्यक्तियोंके लिये विशेष रुचि होती है, तब आग तौरपर हम यह कहने और माननेके लिये ललचा जाते है : ''ओह! इसकी आत्मा जाग्रत् है,'' पर वह उसकी आत्मा नहीं होती, वह होती है उसकी प्राणिक सत्ता जो सजीव है डोर उसकी शारीरिक क्रियाको परिचालित करती है । विकासकी ओर कदम उठानेवालों धौर अभीतक नितांत भौतिक जीवनकी जड़ता और तमस्में पड़े रहनेवालोंमें यही है प्रथम अंतर । वह पहले तो आकृतिको
२८७ और फिर क्रियाको मी एक तरहके स्पंदनकी तीव्रता प्रदान करता है जिससे प्रायः यह छाप पड़ती है कि इस व्यक्तिकी आत्मा जाग्रत् है, लेकिन यह वह चीज नहीं है, यह तो उसका प्राण है जो विकसित है, जिसमें विशेष क्षमता है, जो भौतिक जड़तासे कहीं अधिक शक्तिशाली है और जो उन्हें स्पंदनकी, जीवनकी और क्रियाकी वह तीव्रता देता है जो उन लोंगोंके पास नहीं होती जिनकी प्राणिक सत्ता विकसित नही है । प्राणिक क्रिया और आत्माके बीच यह द्विविध प्रायः ही होती रहती है.. - आत्माके स्पंदनकी अपेक्षा प्राणिक स्पंदन मनुष्यकी चेतनाकी पकडूमें ज्यादा आसानीसे आते हैं ।
किसीकी आत्माको अनुभव करनेके लिये साधारणतया मनको अचंचल बना देना जरूरी है -- एकदम अचंचल, क्योंकि जब वह क्रियाशील होता है तो तुम आत्माके स्पंदनको नहीं, उसके स्पदनोंकी अनुभव करते हो ।
और तब, जब तुम किसी ऐसे व्यक्तिको देखते हो जो अपनी आत्माके बारेमें सचेत है और अपनी आत्मामें रहता है, जब तुम ऐसे व्यक्तिको देखने हो ते'। नीचे उतरनेका आभास होता है, ऐसा लगता है कि तुम गहरे, गहरे, गहरे, सत्ताकी गहराईमें दूर, दूर, दूर, दूरतक अंदर पैठ रहे हो जब कि साधारणतया यदि तुम किसीकी आंखमें देरवते हों तो बहुत जल्दी ही तुम्हारी भेंट एक ऐसी सतहसे होती है जो स्पंदित होती और तुम्हारी दृाट्रिटको उत्तर देती है, पर तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम नीचे, नीचे, नीचे, नीचे मानों विवरमें गहरे -- और दूर, बहुत दूर, बहुत दूर कही भीतर जा रहे हों, तब तुम्हें.. संक्षिप्तता मौन उत्तर मिलता है । नही तो, आम तोरपर, तुम पैठते हों -- ऐसी आंखें मी है जिनमें तुम पैठ नही सकते, वे बंद दरवाज़ेकी तरह होती हैं -- पर ऐसी आंखें मी होती है जो खुली रहती है, तुम घुसते हों और निकट ही पीछे कुछ स्पंदित होती हुई चीज पाते हो, इस तरह, रह-रहकर चमकती हुई, स्पंदित होती हुई । ओर तब यहीपर, यदि तुम भूल कर बैठो तो कह उठते हो, ''ओह! इसमें जाग्रत् आत्मा है'' -- यह वह नहीं है, यह तो उसका प्राण है ।
अंतरात्माको पानेके लिये इस तरह जाना होगा (भीतर डुबकी लगानेका संकेत), इस तरह, ऊपरी सतहसे पीछे हटना होगा, गहरे पैठना होगा, और घुसना होगा, घुसना होगा, घुसता होगा, घुसना होगा।., नीचे उतरना होगा, नीचे, नीचे, नीचे उतरना होगा एक बहुत गहरे, शांत, निश्चल विवरमें, और तब वहां, वहां है एक तरहका.. कुछ जौ उष्ण है, लात, तत्वमें समृद्ध और अत्यंत निश्चल, और सर्वथा परिपूर्ण, मिठासकी तरह, -- यह है आत्मा ।
ओर यदि तुम आग्रह करो और स्वयं अपने-आप सचेत होओ, तो एक
२८८ तरहकी परिपूर्णता पैदा होती है जो किसी वस्तुके पूर्ण होनेका आभास देती है जो अपनेमें अथाह गहराइयोंको समाये है जिनमें यदि कोई पैठे तो अनु- भव करेगा कि अनेक रहस्य उद्घाटित हो जायेंगे... किसी शाश्वत तत्त्वके प्रशांत जलोंमें पड़ते प्रतिबिंबक नाई । और तब आदमी अपने- आपको कालके द्वारा सीमित नहीं पाता ।
लगता है कि हम हमेशा रहे हैं और अनंत कालतक रहेंगे ।
यह तब होता है जब हम अंतरात्माके मर्मको छू लेते है ।
और यदि संपर्क पर्याप्त सचेत और सर्वांगीण रहा हों तो वह तुम्हें बाह्य आकृतिकी दासतासे मुक्त कर देता है; अब तुम यह महसूस नहीं करते कीचक शरीर है इसीलिये तुम जी रहे हों । यही है साधारणतया मनुष्यका सामान्य संवेदन, उस बाह्य आकृतिसे इस हदतक बंधे रहना कि जब भी वह ''मैं' के बारेमें सोचता है तो वह ''शरीर' के बारेमें सोचता है । यह आम बात है । व्यक्तिगत सत्य है शारीरिक सत्य । जब कोई आंतरिक विकासके लिये चेष्टा करता है और सत्तामें कुछ ऐसी चीज खोज निकालने- का प्रयत्न करता है जो अधिक स्थिर हो, तभी वह अनुभव करना शुरू करता है कि वह ''कुछ'' है जो युग-युगांतर और सब तरहके परिवर्तनोंमेंसे गुजरते हुए मी सर्वदा सचेत है, और इसी कुछको ''मैं'' होना चाहिये । पर यह पहले ही काफी... काफी गहरे अध्ययनकी अपेक्षा रखता है । नहीं तो, यदि तुम सोचो ''मैं यह करुंगा,'' ''मुझे उसकी जरूरत है,'' तो यह हमेशा तुम्हारा शरीर होता है, जरा-सी एक तरहकी इच्छा होती है, जो संवेदनों, प्रायः उलझी हुई भावुक प्रतिक्रियाओं एवं और भी अधिक उलझे हुए ऐसे विचारोंका मिश्रण होती है जो किसी भी आवेग, आकर्षण, इच्छा और चाहसे प्राणवंत हो उठते है, और यह सब क्षणिक ''मैं'' बन जाता है । लेकिन सीधे नहीं, क्योंकि तुम इस ''मैं'' की सिरसे, धूसते, हाथ- पैरसे और उस सबसे जो हिलता-डुलता है, अलग कल्पना नहीं कर सकते, यह बड़ी घनिष्ठतासे जुड़ा हुआ है ।
तुम बहुत चिंतन, बहुत अनुभव, बहुत अध्ययन, बहुत अवलोकनके बाद यह समझना आरंभ करते हो कि ये एक-दूसरेसे लगभग स्वतंत्र हैं, यह भी कि पीछे रहनेवाली इच्छा-शक्ति उससे काम करा मी सकतीं है ओर मना भी कर सकती है और वह गति, कार्य और सिद्धिके साथ पूर्णतया एकाकार न हो -- अर्थात्, वहां अनिश्चय है । पर इसे देख पानेके लिये लंबा अनुभव चाहिये ।
और फिर, और भी लंबे अनुभवकी आवश्यकता है यह देखनेके लिये कि वह दूसरी चीज जो वहां है, इस तरहकी सचेतन सक्रिय इच्छा-शक्ति,
वह ''किसी और'' द्वारा परिचालित होती है जो देरवती है, परखती है, निर्णय करती है और अपने निर्णयोंको ज्ञानपर आवरित करनेकी चेष्टा करती है -- यह, यह तो और भी देरसे आता है । और तब, जब तुम उस ''किसी और चीज' को देखना आरंभ करते हो तो तुम देखना आरंभ करते हो कि इसमें उस दूसरी चीजको गति देनेकी सामर्थ्य है जो एक क्रियाशील इच्छा-शक्ति है; सिर्फ यही नहीं, प्रतिक्रियाओं, भावनाओं और संवेदनोंपर इसकी क्रिया बहुत सीधी और बहुत महत्त्वपूर्ण होती है, और अंतमें, वह सत्ताकी सारी गतिविधियोंपर नियंत्रण रख सकती है, वह अंश जो देखता है, जो अवलोकन करता है, जो परखता है, जो निर्णय करता है । यह है संयमका प्रारंभ ।
जब तुम इसके बारेमें सचेत हो जाते हो तो सूत्र तुम्हारे हाथ लग जाता है और जब तुम संयमके बारेमें कहते हों, तुम जान सकते हों : ''अरे! हां, उसीके पास है संयमित करनेकी शक्ति ।''
इसी तरह व्यक्ति अपने-आपका देखना सीखता है ।
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